संकट में पत्रकार
विस्तृत और प्रामाणिक अध्ययन की जरूरत
पत्रकार कितने भी समर्थ हों और मीडिया कितना भी जागरूक हो, लेकिन वह इस प्रश्न तक का उत्तर नहीं दे पा रहा कि भारत में कोरोना के विस्फोट के बाद मीडिया जगत के कितने लोगों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा और बीते 18 महीनों की जद्दोजहद में कितने पत्रकार आधे वेतन पर काम करने के लिए मजबूर हुए हैं। या फिर, कितने पत्रकार बीमार हैं और कितने पत्रकारों के परिवार भुखमरी का शिकार हुए हैं।
महामारी के इस संकट ने मीडियाकर्मियों और मीडिया के पेशे को जो चोट पहुंचाई है, उससे उबरने में बरसो लगेंगे। सच बात तो यह है की पत्रकारों ने बीते 10-12 सालों में अपने वेतन और थोड़ी-बहुत सुविधाओं में जिस वृद्धि को हासिल किया था, वह अब एक झटके में ही खत्म हो गई है। इस परेशानी भरे वक्त में भी अखबारों और चैनलों के मालिकों ने बड़े पैमाने पर छंटनी करने या वेतन घटाने से कोई परहेज नहीं किया। सच यह है कि आज मीडिया मालिक नहीं, बल्कि मीडियाकर्मी संकट में है।
अब सवाल यह है कि क्या हमारे पास बीते 18 महीनों का कोई व्यवस्थित अध्ययन उपलब्ध है, जो यह बता सके कि इस अवधि में पत्रकारों ने किस तरह के संकटों और चुनौतियों का सामना किया है ? पूरे देश में इस बात की चर्चा है कि कोरोना काल में अब तक लगभग 600 डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी अपनी जान गवा चुके हैं। इंडियन मेडिकल काउंसिल द्वारा इस बारे में प्रामाणिक और व्यवस्थित सूचनाएं एकत्र करके सरकार का ध्यान इस खींचा गया है, लेकिन पत्रकारों की किसी भी संस्था ने राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई सर्वे या अध्ययन नहीं कराया, जिससे यह पता लग सके इस अवधि में पत्रकारों की आर्थिक, मानसिक और पारिवारिक-सामाजिक जिंदगी की क्या स्थिति है।हालांकि, सोशल मीडिया पर एक सूची जरूर घूम रही है, जिसमें उन 100 से अधिक पत्रकारों के नाम दिए गए हैं जिन्हें कोरोना संक्रमण के कारण अपनी जान गवानी पड़ी है। लेकिन, यह सूची पूरी तरह प्रामाणिक नहीं है।
मौजूदा समय में पत्रकार दोहरे संकट का सामना कर रहा है। एक तरफ कोई भी सरकार या सरकारी संस्था पत्रकारों के संकट को लेकर समुचित स्तर पर संवेदनशील नहीं है और दूसरी तरफ सरकारों और मालिकों के बीच गहरा गठजोड़ बन गया है। इसी गठजोड़ का परिणाम है कि मीडिया घरानों में ठीक प्रकार से श्रम कानूनों को लागू नहीं किया जा रहा है।
यह बहुत बड़ा विरोधाभास है कि जो पत्रकार दूसरे लोगों के हितों के लिए लगातार संघर्ष करते हैं, उन पत्रकारों के हितों का रखवाला कोई नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मौजूदा समय मीडियाकर्मियों और मीडिया दोनों के लिए भयावह है। वस्तुतः इस भयावहता की कीमत मीडियाकर्मियों को ही चुकानी पड़ रही है।
ये बात अलग है कि मीडिया मालिक बीते वर्षों में ठीक-ठाक लाभ कमाते रहे हैं इसलिए वे कोरोना के इस दौर से आसानी से पार पा जाएंगे, लेकिन पत्रकारों के सामने नौकरी, वेतन, बीमारी आदि के मामले में कोई संस्थानिक संरक्षण मौजूद नहीं है और यदि यह संरक्षण मौजूद है भी तो यह पंगु दिखाई देता है।
अब यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि बीते कुछ वर्षों में मीडिया के केंद्र में मीडिया मालिक आ गया है। संपादक और चैनल प्रमुख की भूमिका मीडिया के मालिक के पास ही है। ऐसे में पत्रकार नितांत अकेला है। संपादक के रूप में मौजूद मालिक और पत्रकार के हित तथा उद्देश्य दोनों पूरी तरह से अलग हैं।
पत्रकार के सामने एक बड़ा संकट यह भी आया है कि अब अपने मीडिया हाउस के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी भी उसी की है। ऐसे में, यह बात और भी चिंताजनक है कि पत्रकारिता जैसे सतत सक्रिय और जागरूकता भरे पेशे में ऐसा कोई तथ्यात्मक अध्ययन उपलब्ध नहीं हो पाया जो यह बता सके कि बीते महीनों में पत्रकारों की जिंदगी किस तरह प्रभावित हुई है।
अब इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं है कि मीडिया घरानों ने कोरोना की आपदा को अपने लिए एक अवसर में परिवर्तित कर लिया है। उन्होंने अपने खर्चों को बड़ी हद तक घटा दिया है। छंटनी के अलावा अखबारों-पत्रिकाओं के पेज घट गए हैं। वर्क फ्रॉम होम के नाम पर अनेक दफ्तर बन्द कर दिए गए हैं और अन्य सुविधाओं में भी कटौती की गई है। इसका लाभ उन्हें कई वर्षों तक मिलता रहेगा। ऐसे में यह मांग स्वाभाविक है कि यदि देश के प्रमुख मीडिया घराने बीते सालों में कथित रूप से घाटे में रहे हैं तो फिर उन्हें अपनी बैलेंस शीट को नए सिरे से सार्वजनिक करना चाहिए ताकि पता लग सके कि घाटे में कौन है, पत्रकार या मीडिया मालिक!
चूंकि विगत कुछ वर्षों से भारत का मीडिया मुख्यतः सरकार केंद्रित रहा है इसलिए यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि सरकार खुलकर पत्रकारों के हित में आएगी। साल 2020 में जहां अन्य उद्योगों में 20 से 25 फीसद लोगों की नौकरी गई अथवा उनके वेतन में कमी की गई, वहीं एक मोटा अनुमान है कि मीडिया में 35 से 40 फीसद पत्रकार या तो अपनी नौकरी गंवा बैठे अथवा उनका वेतन पहले की तुलना में आधा रह गया है।
मौजूदा स्थिति का असर आने वाले समय में और भी गहरे रूप में दिखाई देगा। अब मीडिया में एंट्री लेवल पर नए लोगों की संभावनाएं सीमित हो गई हैं और अभी तक एंट्री लेवल पर जो मानदेय दिया जाता था, वह 18-20 हजार प्रति माह से घटकर 8-10 हजार हो गया है। इसका असर देशभर के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में संचालित हो रहे पत्रकारिता और मीडिया अध्ययन विभागों पर भी साफ तौर पर दिखाई देगा। मुख्यधारा के मीडिया के अलावा विज्ञापन, इवेंट मैनेजमेंट, फिल्म प्रोडक्शन आदि से संबंधित रोजगार भी प्रभावित हुए हैं।। मीडिया के भीतर यह उद्वेलन का समय है, लेकिन इस उद्वेलन में मीडियाकर्मी अपने हितों के संरक्षण के मामले में सबसे गरीब व्यक्ति दिखाई दे रहा है। टेक्नोलॉजी की बढ़ती भूमिका ने उसकी चुनौतियों को और बढ़ा दिया है। फिलहाल, देश में पत्रकारों की स्थिति को लेकर एक तथ्यात्मक और विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है ताकि लोगों के सामने मीडिया और मीडियाकर्मियों की सही-सही तस्वीर प्रस्तुत की जा सके।
सुशील उपाध्याय
30-मई हिंदी पत्रिकारिता दिवस पर विशेष——–30 मई का दिन आपको यह याद दिलाने के लिए हर वर्ष आता है कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ पत्रकारिता के बड़े तक़ाज़े,उम्मीदें आपसे हैं।सरल भाषा मे पत्रकारिता को अगर परिभाषित किया जाए तो”सरकार,सिस्टम और जनता के बीच आम जनता की ज़रूरतों और सूचनाओं के आदान-प्रदान को पत्रकारिता कहते हैं”।इसका झुकाव सदा—ग़रीब, पिछडे,शोषित,पीड़ित समाज की तरफ होना चाहिए।क्यूंकि पत्रकार औऱ पत्रकारिता ही—उनकी आवाज़ है और सरकार को सचेत करती है।आज़ादी से पहले अंग्रेजों और उनके ज़ुल्मों-सितम के विरुद्ध इस देश मे हज़ारो पत्रकारोंं ने फांसी के फंदे को हक़ और सच के लिए क़बूल किया।उस समय यह देश सेवा थी और क़लम और सियाही के शब्दों का मेल देश भक्ति और जुनून से कम नही था।
मगर अफसोस धीरे-धीरे आज़ादी के बाद यह ना सिर्फ साम्प्रदायिक बल्कि सत्ता में बैठी बेईमान सरकारों की मुंह की बोली बन चुकी है।आज निरक्षर,स्तरहीन,बेरोज़गार पत्रकार सरकार,सरकारी जनप्रतिनिधियों, पुलिस,धन्ना सेठों की बोली बोलती है।यह सुबह सवेरे हज़ारों वरिष्ठ नेता,कार्येकर्ता,चोर,डकैत, देशद्रोही,आतंकी अड्डे,तलाक़ और बलात्कार की कहानियां घडते हैं।धर्म,जाति और सम्प्रदाय के नाम पर बाँटते हैं———इनके लिखे पर लोग आज भी अंधविश्वास करते हैं।
प्रिंट मीडिया के बाद इलेक्टॉनिक मीडिया और अब सोशल मीडिया ने स्तरहीनता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं—-पत्रकारिता का यह सबसे घटिया और सस्ता माध्यम बन गया है— विश्वस्नीता में इसका पैरा मीटर शून्य है।इस माध्यम से लिखने वाले सबकी छवि उज्वल कर रहे हैं—-विशेष रूप से पुलिस की।इनकी पुलिस के प्रति मानसिक और आर्थिक ग़ुलामी जग ज़ाहिर है।
ऐसा नही इन स्तरहीन हालात में सुधार नही हो सकता—समाचार पत्रों के धन्ना सेठों मालिकों को——अपने मीडिया कर्मियों के लिए तिजोरियों के उचित दरवाज़े खोलने होंगे।योग्यता और अनुभव को प्राथमिकता देनी होगी।उचित वेतन—-पत्रकारों को सम्मान देगा होगा—और पत्रकारों को भी अपनी छवि अपने कर्म-धर्म के बल पर मज़बूत करनी होगी।निश्चित ही विश्व स्तर पर आज पत्रकारिताआग का दरिया है और तैर के जाना है।
बहरहाल—-अंत मे 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस गणेश शंकर विद्यार्थी जी (1890-1931)की याद में मनाया जाता है।26 अक्टूबर 1890 को अतरसुइया,प्रयाग उत्तर प्रदेश में जन्मे गणेश शँकर विधार्थी जी उर्दू,अंग्रेज़ी और हिंदी भाषा मे दक्ष थे।उन्होंने कर्मयोगी,स्वराज्य,हितवार्ता,प्रताप,प्रभा नामक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे।वह अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक आंदोलन में प्रमुख भूमिका में रहे।25 मार्च 1931 को कानपुर दंगो में उनकी हत्या हुई।समाज के प्रति उनकी अमूल्य कुर्बानी पर यह दिन पत्रकारिता और पत्रकारों के लिए विशेष है।
?सुनील चौधरी स्वत्रंत पत्रकार ,लेखक,विचारक। सहारनपुर उ.प्र.?