सम्भल/चन्दौसी (राकेश हर्ष वर्धन)। हिन्दी काव्य जगत में डा0 उर्मिलेश शंखधार को कौन नहीं जानता है। वह हिन्दी काव्य जगत की न केवल एक नामचीन हस्ती थे बल्कि यूँ कहिये कि वह हिन्दी काव्य जगत के एक वट वृक्ष थे। हम लोगों का दुर्भाग्य है कि वह अल्प समय में ही हम सबको अलविदा कह गये। उनके देहावसान के बाद जैसे हिन्दी काव्य जगत में एक रिक्तता सी आ गयी थी। उस रिक्तता को भरने का सार्थक प्रयास उनकी प्रतिभावान सुपुत्री डा0 सोनरुपा विशाल आजकल बखूबी कर रही हैं।
डा0 सोनरुपा विशाल आजकल सफलता के उस मुकाम पर हैं जहाँ वह किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। लेकिन यह उनका पिता प्रेम या पिता के प्रति सम्मान है कि उन्हें जब डा0 उर्मिलेश जी की सुपुत्री के रुप में जाना जाता है तो उन्हें बहुत ज्यादा सुकून मिलता है तथा अत्याधिक प्रसन्नता होती है।
ईश्वर ने सोनरुपा को उनके नाम के अनुुरुप जितना सौंदर्य प्रदान किया है उतना ही सुन्दर, सरल तथा भावनात्मक उनका मन भी है। सादगी, सौम्यता, शालीनता, मिलनसारिता, हँसमुख स्वभाव आदि असीमित प्रतिभा की धनी डा0 सोनरुपा के कुछ गहने हैं। उनकी कलम तथा कंठ में जैसे साक्षात सरस्वती विराजमान हैं। जब वह अपनी खनकती हुई सुरीली मखमली आवाज में प्रस्तुतियां देती हैं तो श्रोताओं को बिल्कुल नसीमे गुलशन का एहसास होता है। नसीमे गुलशन बागों में चलने वाली बिल्कुल सुबह सुबह की ताजा शीतल हवा को कहते हैं। जो सुकून एवं शान्ति व्यक्ति को उस हवा से मिलती है तथा वह बिल्कुल तरोताजा हो जाता है वही काम डा0 सोनरुपा विशाल की प्रस्तुतियां करती हैं।
वह अपने पिता डा0 उर्मिलेश शंखधार को अपना आदर्श तथा प्रेरणास्रोत मानती हैं। उन्होने अपने पापा को समर्पित एक कविता भी लिखी है जीवन से भरपूर हिमालय जैसे थे पुरजोर पिता, मैं उनकी बहती नदिया हूँ मेरे दोनों छोर पिता। काव्य शौक सोनरुपा को विरासत में मिला है। उनके पापा डा0 उर्मिलेश, बाबा भूपराम शर्मा भूप, चाचा, पापा के ताऊ जी आदि सभी कवि थे और परिवार में काव्य का माहौल था। वहीं से यह शौक इन्हें विरासत में मिला है। वह बचपन में अपना परिचय भी लोगों को कविता के माध्यम से ही दिया करती थीं। छात्र जीवन में समय समय पर अनेक प्रतियोगितायें जीतकर सम्मान भी प्राप्त करती रही थीं। उन्होने अपनी प्रजेन्टेशन के भाव, शिल्प आदि को भी समझने की हमेशा कोशिश की है।
उन्हे अपने पापा से बहुत ज्यादा लगाव था। वह अपने पापा का विछोह बर्दाश्त नहीं कर पायी थीं। उन्हें लगता था कि सर पर आसमान नहीं रहा। वह ऐसे मरुस्थल या रेगिस्तान में खड़ी हैं जहाँ प्यास बुझाने के लिये आस पास तो क्या दूर दूर तक पानी की एक बूँद तक नहीं है। वह बिल्कुल टूट गयी थीं तथा डिप्रेशन में आ गयी थीं। ऐसे में उन्होने अपने पापा की किताबें पढ़ना शुरु किया। वर्ष 2012 में उन्होने टी0वी0 पर आने वाले लोकप्रिय कार्यक्रम वाह वाह क्या बात है में प्रतिभाग कर अपनी गजलों के कुछ शेर तथा पापा की लिखी गजल लड़कियां लड़कियां सुनायी। जहाँ से पूरे देश ने उनकी प्रतिभा को जाना।
उसी समय उनकी एक सीडी आस पास का लोकार्पण हुआ। जिसमें उन्होने अपने पापा की लिखी गजलें गायी थी। उनकी एक गजल माँ पर आधारित शाम सी नम रातों सी भीनी भोर सी है उजियारी माँ बहुत लोकप्रिय हुई। इसी बीच उन्हें कवि सम्मेलनों के निमंत्रण भी आने लगे। जिन्हें पहले तो उन्होने स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह एक बहुत सम्पन्न ससुराल से हैं और कमाई का उनका कोई उद्देश्य भी नहीं था। उनकी रचनायें लगातार विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, समाचार पत्रों तथा किताबों आदि में प्रकाशित हो रही थीं तथा आजकल भी हो रही है। लेकिन उनको कुछ हमदर्द व सरपरस्त कवियों ने जिन्हें वह अपना परिवार मानती हैं सलाह दी कि तुम्हारे अन्दर एक शालीनता है गरिमा है जो आजकल मंचों से तिरोहित होती जा रही है। इसलिये तुम्हें मंचों पर आकर उस गरिमा एवं शालीनता को जीवित रखने का कार्य करना चाहिये। उनकी सलाह पर सोनरुपा ने मंचों पर आना शुरु किया।
सोनरुपा बहुत ही चूज़ी किस्म की हैं और केवल उन्हीं मंचों पर जाती हैं जो गरिमा मयी होते हैं और जहाँ उन्हें केवल कविता के लिये बुलाया जाता है। उन्हें मंचों पर किसी भी प्रकार के लटके झटके कतई पसंद नहीं हैं। उन्होने देश में जगह जगह बड़े कवि सम्मेलनों के अलावा अमेरिका के 24 शहरों तथा यू0के0 (लन्दन) के 12 शहरों में अपनी प्रस्तुतियां देकर अपने नगर बदायूँ तथा देश का नाम रोशन किया है।
उनकी तीन किताबें लिखना जरुरी है, अमेरिका और 45 दिन तथा पिछले बरस का गुलमोहर प्रकाशित हो चुकी हैं। शीघ्र ही उनकी एक गजलों की किताब भी प्रकाशित होने वाली है। उन्हें समय समय पर अनेक गरिमामयी पुरस्कारों एवं सम्मानों से सम्मानित किया जाता रहा है। उनकी कविताओ का आधार मुख्य रुप से जिन्दगी के सबसे ज्यादा बेसिक भाव जिसपर पूरी सृष्टि टिकी है अर्थात प्रेम है। प्रेम केवल स्त्री पुरुष वाला नहीं समाज से प्रेम, प्रकृति से प्रेम, रिश्तों से प्रेम जहाँ पर एक भावना हो और यह समाज सुन्दर बन सके वह प्रेम। प्रेम के बारे में डा0 सोनरुपा का कहना है कि प्यार में डूबना ही पड़ता है प्यार में आचमन नहीे होता।
उनकी कुछ रचनाओं की बानगी देखिये कि इन्द्रधनुषि छटा सी उभर जाऊँगी मैं गुलाबों की सूरत सी सँवर जाऊँगी, हाँ अगर आपसे दूरियां हो गयीं पंखुड़ी पंखुड़ी में बिखर जाऊँगी। एक और बानगी देख्यिे जो अपरिचित था उसे मैं जान पाई अपनी आवाजों को अपना मान पाई, जब निरन्तर राह पर आगे बढ़ी मैं जिन्दगी के रुप को पहचान पाई। लोगों को उनका संदेश है कि जिन्दगी को भी सँवारना होगा सिर्फ सूरत सँवारना कब तक। डा0 सोनरुपा अपनी उपस्थिति मात्र से ही किसी भी मंच को परिपूर्णता प्रदान करने की क्षमता रखती है। हम उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं। हमारी यह भी कामना है कि वह काव्य जगत में अपने पापा की रिक्तता को पूर्ण कर पायें और एक दिन ऐसा भी आये कि लोग कहें डा0 उर्मिलेश शंखधार डा0 सोनरुपा विशाल के पिता थे।